आधुनिकता के इस युग में व्यक्ति भौतिक उपलब्धियों के पीछे इस कद्र भाग रहा है कि वह स्वयं के अनमोल मानवीय भावों की पहचान खो रहा है । उसकी प्रकृति का एक अंग उसके कोमल भाव अतीत की कहानी बनते जा रहे हैं । क्षमा, सहिष्णुता , त्याग , प्रेम आदि भावों का ग्राफ निरंतर गिरता जा रहा है । जिस अनुपात में उसके उदात्त भावों का ग्राफ गिरता जा रहा है , उसी अनुपात में उसके तनाव का ग्राफ चढ़ रहा है । बाहर से देखने पर वह समृद्ध दिखाई देता है , लेकिन अंदर से खोखला हो रहा है । यहाँँ तक कि नारी जाति की अनमोल निधि ममता की भावना भी क्षीण हुई है । आजकल की युवा पीढ़ी एक और दांपत्य संबंध का दायित्व निर्वाह करने से पीछे हट रही है , तो साथ ही संतान उत्पत्ति तथा उसके भरण-पोषण का दायित्व-भार कंधों पर लेने से भी बचता दिखाई देता है । प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए प्राचीन भारतीय संस्कृति में जब संतान उत्पत्ति को पितृ-ऋण से उऋण होने का साधन माना जाता था , तब घर में छोटे बच्चे की किलकारियों से एक ओर वृद्ध-जनों का समय आनंद के साथ व्यतीत होता था , तो दूसरी ओर वृद्ध जनों का अनुभव प्राप्त करके छोटे बच्चों का भावात्मक तथा अनुशासनात्मक विकास होना सुनिश्चित हो जाता था । लेकिन वर्तमान पीढ़ी का जीवन दर्शन बदल रहा है । उसी विडम्बना को रेखांकित करती हुई रोचक शैली में रचित कहानी नाती की चाह पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।