ठाकुर दर्शनसिंह अपनी बगी मैं बैठे बैठे यह द्रश्य बहुत ही गौर और दिलचस्पी से देख रहे थे वे अपने मार्मिक विश्वासों में चाहे कट्टर हों या न हों, लेकिन सांस्कृतिक मामलो में वो आज तक अगुवाई करने के दोषी साबित नहीं हुए थे इस प एचिदा और डरावने रस्ते में अपनी बुद्धि और विवेक पर उन्हें भरोसा नहीं होता था यहाँ पर उनके तर्क और युक्तियों को भी हार माननी पड़ती थी इस मैदान में वे अपने घर की स्त्रियों की इच्छा पूरी करने को ही अपना कर्तव्य समझ ते थे और चाहे उन्हें खुद किसी मामले में कुछ इतराज़ भी हो फिरभी वे इसमें वे हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे क्यूंकि...