राजहठ

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राजा साहब की गद्दी के उत्तराधिकारी राजकुमार की इज्जत करते थे और मुहब्बत तो कुदरती बात थी, फिर भी उन्हें उनकी यह बेमौका हथ पसंद नहीं आती थी वह इतने संकीर्ण बुध्धि नहीं थे की कुंवर साहब की नेक सलाहों की कद्र न करे इससे राज्य पर बोझ निश्चय ही बढ़ जाता था और रियाया पर भी और ज़्यादा ज़ुल्म बरसाना पड़ता था मैं अँधा नहीं हूं की ऐसी मोटी मोटी बातों को समझ न सकूँ मगर अच्छी बातें भी मौका महल देख कर ही की जाती है, आख़िरकार यश, इज्जत और आबरू भी कोई चीज़ होती है की नहीं?