प्रदूषण के बढ़ते कुप्रभावों और उसके रोकथाम पर हमारे परिवेश की एक कहानी। प्रोफेसर अनंत सिंह को याद करते हुए एसोशिएट प्रोफेसर योगेश भी भावुक हो गए।ऐसा लगा कि अभी वापस अनंत सिंह कहीं किसी क्षितिज से आकर पूर्ववत बोलना शुरू कर दिए हों। उनकी बातें उस स्टॉफ रूम में गूँज रही थी, मेरे माता-पिता ने मेरा नाम यूँ ही अनंत नहीं रखा है। कोयले से उगलते जिन धुंओं ने मेरे फेफ़ड़े को खराब किया, कई वर्षों तक दमघोंटू खाँसी के जिन मारक अटैक्स को न चाहते हुए भी मुझे बर्दाश्त करना पड़ा, जिसके कारण मुझे अकाल मृत्यु मिल रही है, मैं नहीं चाहता कि किसी और को साँस की ऐसी बीमारी हो। मैं जानता हूँ, मनुष्य की ज़रूरत कभी कम नहीं हो सकती है। बिजली के बग़ैर उसका काम भी नहीं चल सकता है। इसलिए नवीकरणीय ऊर्जा पर ताज़िंदगी मेरा ज़ोर रहा। मेरे बचपन और मेरी किशोरावस्था ने कोयले से निकलते जितने धुँए पिए हैं, मैं नहीं चाहता कि कोई और बच्चा और किशोर इस ज़हर को पिए और निरपराध होकर किसी और की करतूत की सजा भोगे। ये बेकार हुए मेरे फेफड़े अपने साथ मेरे पूरे शरीर को मार सकते हैं, मेरी जान ले सकते हैं मगर मेरे स्वप्न और संकल्प मेरे युवा साथियों में हमेशा जाग्रत रहेंगे। ऐसा लगा कि उस पवित्र आत्मा की शक्ति उन सबमें समा गई है । इसी कहानी का एक अंश।