मिश्रा जी का मंच-मोह

  • 10.4k
  • 710

परंपरागत पितृसत्तात्मक समाज स्त्रियों को अनेक सीमाओं-बंधनों में जकड़ कर अपना प्रभुत्व स्थापित करके अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए युगों-युगों से स्त्री को बलि का बकरा बनाता आया है । अपने हृदयस्थ कोमल भावों के अधीन स्त्री अपनी गृहस्थी को बचाने के लिए स्वयं को गृहस्थ रुपी यज्ञ-कुंड की समिधा बनाकर गौरवान्वित अनुभव करती है । किंतु आज की सुशिक्षित माँ अपनी प्रतिभाशाली बेटी को आगे बढ़ने का पूरा अवसर उसे देना चाहती है । इसलिए वह स्वयं आगे बढ़कर उन सीमाओं को तोड़ देती है, जिन्हें उसने अपने लिए सहज स्वीकार कर लिया था । प्रस्तुत कहानी मिश्रा जी का मोह-मंच आज की स्थिति का रोचक शैली में किया गया शब्दांकन है ।