आरजू

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जैसे चलना, बसना, सजना ये मशीन की तरह अपने आप बनते कर्म हो गए है दूसरी और सोचो तो आदमी जैसे किसीके लिए या अपने आप के लिये यह सबकुछ नहीं कर रहा है, फिर भी कर्म कर रहा है इन काव्यों में वक्त की गुमनाम ख़ामोशी किसी जहर से कम नहीं अजनबी शहर में आदमी अपना मकान ढूंढने की जुर्रत कैसे कर सकता है वक्त का परायापन आदमी को हर बार मात कर देता है ये शहर भी उससे बात नही करता, जो रस्ते भी अपनी जिद पर अड़े हैं, और फिर भी एक आदमी सारी उम्र अजनबी शहर में घर ढूंढता रहता है दर ब दर