रात्रि के अंधकार में सुनसानी सड़क पर कंधे लटकाए हाथ झुलाए कर्ण आहिस्ता-आहिस्ता चल रहा है। 'राजू नाई' के दूकान को पार कर वो अपने कदमों को विराम देता है तथा सिर ऊपर की ओर उठाए अर्धखुली पलकों से चंद्रमा को निहारने लगता है- "क्यों आखिर मैं ही क्यों मुझे ही क्यों चुना गया"? यह प्रश्न उसके रक्त सने होंठ से बाहर निकले उस अंतहीन अंधेरे में वह अपना जीवन तथा गोल चाँद में उसको अपनी यादों की खाईं दिखाई दी जिसके भीतर उसे ढकेल दिया गया। ऐसी रातों का कर्ण के जीवन में बड़ा महत्व रहा है क्योंकि माँ के अनुसार पूर्णिमा को ही उसका जन्म और उसके पिता की सड़क दुघर्टना में मृत्यु हुई थी जिसके पश्चात् माँ ही उसका इकलौता सहारा और खुशी का ज़रिया रही परंतु यह खुशी भी उससे बारहवें जन्मदिन को ही किसी क्षत्रिय ने छीनकर कर्ण को पूर्ण रूप से अनाथ बना दिया।

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सुरासुर - 1

रात्रि के अंधकार में सुनसानी सड़क पर कंधे लटकाए हाथ झुलाए कर्ण आहिस्ता-आहिस्ता चल रहा है। 'राजू नाई' के को पार कर वो अपने कदमों को विराम देता है तथा सिर ऊपर की ओर उठाए अर्धखुली पलकों से चंद्रमा को निहारने लगता है- क्यों आखिर मैं ही क्यों मुझे ही क्यों... ...और पढ़े

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सुरासुर - 2

"क्या मैं मर गया पर मुझे तो कोई दर्द महसूस नहीं हुआ मैं जिंदा भी हूँ कि नहीं मफ्फ समय क्यों लग रहा है"?दाईं पलक खोलने पर वह आश्चर्यचकित रह गया क्योंकि अब उसके सामने लार टपकाने वाले असुर के बजाय वही खामोश सड़क थी।"क्या बड़बड़ा रहे हो चिंता मत करो तुम अब सुरक्षित हो"बाईं ओर से एक आवाज़ आई उस ओर मुड़ने पर सफेद शर्ट और काले जीन्स में एक व्यक्ति उसे अपनी ओर आते दिखा। लुटेरों की तरह एक आँख में पट्टा लगाए युवक कर्ण के पास आतें हीं मुस्कुराकर अपना हाथ आगे बढ़ाता है-"तुम्हारा नाम"?"क..क.. कर्ण" ...और पढ़े

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