वर्षाराज श्रावण मास की सुबह है, बादल बरसकर छँट चुके थे, निखरी चटक धूप से कलकत्ता का आकाश चमक उठा है। सड़कों पर घोड़ा-गाड़ियाँ लगातार दौड़ रही हैं, फेरी वाले रुक-रुककर पुकार रहे हैं। जिन्हें दफ्तर, कॉलेज और अदालत जाना है उनके लिए घर-घर मछली-भात-रोटी तैयार की जा रही है। रसोईघरों से अंगीठी जलाने का धुआँ उठ रहा है। किंतु तब भी इस इतने बड़े, पाषाण-हृदय, कामकाजी शहर कलकत्ता की सैकडों सड़कों-गलियों के भीतर स्वर्ण-रश्मियाँ आज मानो एक अपूर्व यौवन का प्रवाह लिए मचल रही है।
Full Novel
गोरा - 1
वर्षाराज श्रावण मास की सुबह है, बादल बरसकर छँट चुके थे, निखरी चटक धूप से कलकत्ता का आकाश चमक है। सड़कों पर घोड़ा-गाड़ियाँ लगातार दौड़ रही हैं, फेरी वाले रुक-रुककर पुकार रहे हैं। जिन्हें दफ्तर, कॉलेज और अदालत जाना है उनके लिए घर-घर मछली-भात-रोटी तैयार की जा रही है। रसोईघरों से अंगीठी जलाने का धुआँ उठ रहा है। किंतु तब भी इस इतने बड़े, पाषाण-हृदय, कामकाजी शहर कलकत्ता की सैकडों सड़कों-गलियों के भीतर स्वर्ण-रश्मियाँ आज मानो एक अपूर्व यौवन का प्रवाह लिए मचल रही है। ...और पढ़े
गोरा - 2
अंग्रेज़ी नावल विनय ने बहुत पढ़ रखे थे, किंतु उसका भद्र बंगाली परिवार का संस्कार कहाँ जाता? इस तरह मन लेकर किसी स्त्री को देखने की कोशिश करना उस स्त्री के लिए अपमानजनक है और अपने लिए निंदनीय, इस बात को वह किसी भी तर्क के सहारे मन से निकाल न सका। इससे विनय के मन में आनंद के साथ-साथ ग्लानि का भी उदय हुआ। उसे लगा कि उसका कुछ पतन हो रहा है। यद्यपि इसी बात को लेकर गोरा से उसकी बहस हो चुकी थी, फिर भी जहाँ सामाजिक अधिकार नहीं है वहाँ किसी स्त्री की ओर प्रेम की ऑंखों से देखना उसके अब तक के जीवन के संचित संस्कार के विरुध्द था। ...और पढ़े
गोरा - 3
पोर्च की छत जो कि ऊपर की मंजिल का बरामदा था, उस पर सफेद कपड़े से ढँकी मेज़ के कुर्सियाँ लगी हुई थीं। मुँडरे के बाहर कार्निस पर छोटे-छोटे गमलों में सदाचार और दूसरे किस्म के फूलों के पौधे लगे हुए थे। मुँडेर पर से नीचे सड़क के किनारे के सिरिस और कृष्णचूड़ा के पेड़ों के पत्ते बरसात से धुलकर चिकने दीख रहे थे। ...और पढ़े
गोरा - 4
परेशबाबू के घर से निकलकर विनय और गोरा सड़क पर आ गए तो विनय ने कहा, 'गोरा, ज़रा धीरे-धीरे भई.... तुम्हारी टाँगे बहुत लंबी हैं,इन पर कुछ अंकुश नहीं रखोगे तो तुम्हारे साथ चलने में मेरा दम फूल जाएगा।!' गोरा ने कहा, 'मैं अकेला ही चलना चाहता हूँ- मुझे आज बहुत-कुछ सोचना है।' यह कहता हुआ वह अपनी स्वाभाविक तेज़ चाल से आगे बढ़ गया। ...और पढ़े
गोरा - 5
रात को घर लौटकर गोरा अंधेरी छत पर व्यर्थ चक्कर काटने लगा। उसे अपने ऊपर क्रोध आया। रविवार उसने ऐसे बेकार बीत जाने दिया! एक व्यक्ति के स्नेह के लिए दुनिया के और सब काम बिगाड़ने तो गोरा इस दुनिया में नहीं आया। विनय जिस रास्ते पर जा रहा है उससे उसे खींचते रहने की चेष्टा करना केवल समय नष्ट करना और अपने मन को तकलीफ देना है। इसलिए जीवन उद्देश्य के पथ पर विनय से यहीं अलग हो जाना होगा। जीवन में गोरा का एक ही मित्र है, उसी को छोड़कर वह अपने धर्म के प्रति अपनी सच्चाई प्रमाणित करेगा! ज़ोर से हाथ झटकर गोरा ने मानो विनय के साहचर्य को अपने चारों ओर से दूर हटा दिया। ...और पढ़े
गोरा - 6
गोरा ने दो-तीन घंटे की नींद के बाद जागकर देखा कि विनय पास ही सोया हुआ है, देखकर उसका आनंद से भर उठा। कोई प्रिय वस्तु सपने में खोकर, जागकर यह देखे कि वह वस्तु खोई नहीं है, तब मन को जैसा संतोष होता है वैसा ही गोरा को हुआ। गोरा का ज़ीवन विनय को छोड़ देने से कितना अधूरा हो जाता, विनय को पास ही देखकर आज उसने इस बात का अनुभव किया। इसी आनंद की लहर में गोरा ने विनय को उसका सिर हिलाकर जगा दिया और कहा, 'चलो, एक काम है।' ...और पढ़े
गोरा - 7
सुबह गोरा कुछ काम कर रहा था। अचानक विनय ने आकर छूटते ही कहा, 'उस दिन परेशबाबू की लड़कियों मैं सर्कस दिखाने ले गया था।' लिखते-लिखते गोरा ने कहा, 'मैंने सुना?' गोरा, 'अविनाश से। उस दिन वह भी सर्कस देखने गया था।' आगे कुछ न कहकर गोरा फिर लिखने में जुट गया। गोरा ने यह बात पहले ही सुन ली है और वह भी अविनाश से, जिसने नमक-मिर्च लगाकर कहने में कोई कसर नहीं रखी होगी विनय को इस बात से अपने पुराने संस्कार के कारण बड़ा संकोच हुआ। सर्कस जाने की बात की समाज में ऐसी आम चर्चा न हुई होती तभी अच्छा होता! ...और पढ़े
गोरा - 8
गुलाब के फूलों का यहाँ थोड़ा-सा इतिहास बता दें। गोरा तो रात को परेशबाबू के घर चला आया, पर मजिस्ट्रेट घर अभिनय में भाग लेने की बात के लिए विनय को कष्ट भोगना पड़ा। ललिता के मन में उस अभिनय के लिए कोई उत्साह रहा हो, ऐसा नहीं था, बल्कि ऐसी बातें उसे बिल्कुल नापंसद थीं। लेकिन विनय को किसी तरह इस अभिनय के लिए पकड़वा पाने की मानो जैसे ज़िद ठान ली थी। जो भी काम गोरा की राय के विरुध्द हो, वही विनय से करवाना वह चाह रही थी। विनय गोरा का अंधभक्त है, यह बात ललिता को क्यों इतनी खल रही थी, यह वह स्वयं भी नहीं समझ पा रही थी, किंतु उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे भी हो, सब बंधन काटकर विनय को मुक्त कर लेने से ही वह चैन की साँस ले सकेगी। ...और पढ़े
गोरा - 9
गोरा जिस समय यात्रा पर निकला उसके साथ अविनाश, मोतीलाल, वसंत और रमापति, ये चार साथी थे। लेकिन गोरा निर्दय उत्साह के साथ ये लोग लयबध्दता नहीं रख सके। बीमार हो जाने का बहाना करके अविनाश और वसंत तो चार-पाँच दिन में ही कलकत्ता लौट आए। केवल गोरा के प्रति श्रध्दा के कारण ही मोतीलाल और रमापति उसे अकेला छोड़कर वापिस नहीं आ सके, अन्यथा उनके कष्टों की सीमा नहीं थी। गोरा न तो पैदल चलकर थकता था, न कहीं रुके रह जाने से ऊबता था। गाँव का जो कोई गृहस्थ ब्राह्मण जानकर गोरा को श्रध्दापूर्वक घर में ठहराता, उसके यहाँ भोजन इत्यादि की चाहे जितनी असुविधा हो, तब भी गोरा वहीं टिका रहता था। गाँव-भर के लोग उसकी बात सुनने के लिए उसके चारों ओर इकट्ठे हो जाते और उसे छोड़ना ही न चाहते। ...और पढ़े
गोरा - 10
ललिता को साथ लेकर विनय परेशबाबू के घर पहुँचा। विनय के मन का भाव ललिता के बारे में क्या है, स्टीमर पर सवार होने तक ठीक-ठीक नहीं जानता था। ललिता के साथ झगड़ा ही मानो उसके मन पर सवार रहता था। कैसे इस मनचली लड़की के साथ सुलह की जा सकती है, कुछ दिनों से तो यही मानो उसकी दैनिक चिंता हो गई थी। सुचरिता ही पहले-पहल विनय के जीवन में सांध्य-तारक की तरह स्त्री-माधुर्य की निर्मल दीप्ति लेकर प्रकट हुई थी। विनय यही समझता था इसी भाव के अलौकिक आनंद ने उसकी प्रकृति को परिपूर्णता दी है। लेकिन इस बीच और भी तारे निकल आए हैं, और ज्योति-उत्सव की भूमिका पूरी करके पहला तारा धीरे-धीरे क्षितिज के पार चला गया है, यह बात वह स्पष्ट नहीं पहचान सका था। ...और पढ़े
गोरा - 11
वरदासुंदरी जब-तब अपनी ब्रह्म सहेलियों को निमंत्रण देने लगीं। बीच-बीच में उनकी सभा छत पर ही जुटती। हरिमोहिनी अपनी देहाती सरलता से स्त्रियों की आव-भगत करतीं, लेकिन यह भी उनसे छिपा न रहता कि वे सब उनकी अवज्ञा करती हैं। यहाँ तक कि उनके सामने ही वरदासुंदरी हिंदुओं के सामाजिक आचार-व्यवहार के बारे में तीखी आलोचना शुरू कर देतीं और उनकी सहेलियाँ भी विशेषरूप से हरिमोहिनी को निशाना बनाकर उसमें योग देतीं। ...और पढ़े
गोरा - 12
हरिमोहिनी दूसरे दिन सबेरे भी भूमि पर बैठकर परेशबाबू को प्रणाम करने लगीं। हड़बड़ाकर हटते हुए बोले, 'यह आप कर रही हैं?' ऑंखों में ऑंसू भरते हुए हरिमोहिनी ने कहा, 'मैं आपका ऋण कई जन्मों में भी नहीं चुका सकूँगी। मेरे-जैसी इतनी निरुपाय स्त्री का जो उपाय आपने कर दिया, वह और कोई न कर सकता। चाहकर भी मेरा भला कोई नहीं कर सकता, यह मैंने देखा है- आप पर भगवान का बड़ा अनुग्रह है इसीलिए आप मुझ-जैसी अभागिन पर अनुग्रह कर सके हैं।' ...और पढ़े
गोरा - 13
परेशबाबू के पास जाकर ललिता बोली, 'हम लोग ब्रह्म हैं इसीलिए कोई हिंदू लड़की हम दोनों से पढ़ने नहीं अत: मैं सोचती हूँ, हिंदू-समाज से किसी को भी शामिल करने से सुविधा रहेगी। क्या राय है, बाबा?' परेशबाबू ने पूछा, 'हिंदू-समाज में से किसी को पाओगी कहाँ?' ललिता आज बिल्कुल कमर कसकर आई थी, फिर भी विनय बाबू का नाम लेने में उसे लज्जा हो आई, जबरदस्ती उसे हटाती हुई बोली, 'क्यों,क्या कोई नहीं मिलेगा? यही विनय बाबू हैं या.... ' यह 'या' एक बिल्कुल व्यर्थ शब्द था-एक अव्यय का निरा अव्यय, वाक्य अधूरा ही रह गया। ...और पढ़े
गोरा - 14
परेशबाबू ने कहा, 'विनय, ललिता को एक मुसीबत से उबारने के लिए तुम कोई दुस्साहस पूर्ण काम कर बैठो, मैं नहीं चाहता। समाज की आलोचना का अधिक मूल्य नहीं है, जिसे लेकर आज इतनी हलचल है, दो दिन बाद वह किसी को याद भी न रहेगा।' विनय ललिता के प्रति कर्तव्य निबाहने के लिए ही कमर कसकर आया था, इस विषय में स्वयं उसे ज़रा भी संदेह नहीं था। वह जानता था कि ऐसे विवाह से समाज में मुश्किल होगी, और इससे भी अधिक गोरा बहुत ही नाराज़ होगा, लेकिन केवल कर्तव्य-बुध्दि के सहारे इन सब अप्रिय कल्पनाओं को उसने मन से निकाल दिया था। ऐसे मौके पर परेशबाबू ने जब सहसा उस कर्तव्य-बुध्दि को एक बारगी बरखास्त कर देना चाहा तब विनय एकाएक उसे छोड़ न सका। ...और पढ़े
गोरा - 15
विनय यह समझ गया था कि ललिता के साथ उसके विवाह की बातचीत करने के लिए ही सुचरिता ने बुलाया है। उसने यह प्रस्ताव अपनी ओर से समाप्त कर दिया है, इतने से ही तो मामला समाप्त नहीं हो जाएगा। जब तक वह जिंदा रहेगा तब तक किसी पक्ष को छुटकारा नहीं मिलेगा। अब तक विनय की सबसे बड़ी चिंता यही थी कि 'गोरा को कैसे चोट पहुँचाऊँ' गोरा से मतलब केवल गोरा नाम का व्यक्ति ही नहीं था, जिस भाव विश्वास,जीवन का संबल गोरा ने लिया है वह सब भी था। बराबर इनके साथ मिलकर निबाहते चलना ही विनय का अभ्यास था और इसी में उसको आनंद भी था, गोरा से किसी तरह का विरोध जैसे अपने ही से विरोध था। ...और पढ़े
गोरा - 16
आनंदमई से विनय ने कहा, 'देखो माँ, मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ, जब-जब भी मैं मूर्ति को प्रणाम करता हूँ मन-ही-मन मुझे न जाने कैसी शर्म आती रही है। उस शर्म को मैंने छिपाए रखा है- बल्कि उल्टे मूर्ति-पूजा के समर्थन में अच्छे-अच्छे प्रबंध लिखता रहा हूँ। मगर सच्ची बात तुम्हें बता दूँ, जब भी मैंने प्रणाम किया है मेरे अंत:करण ने गवाही नहीं दी।' ...और पढ़े
गोरा - 17
हरिमोहिनी ने पूछा, 'राधारानी, तुमने कल रात को कुछ खाया क्यों नहीं?' विस्मित होकर सुचरिता ने कहा, 'क्यों, खाया तो ने रात से ज्यों का त्यों ढँका रखा खाना दिखाते हुए कहा, 'कहाँ खाया? सब तो पड़ा हुआ है!' तब सुचरिता ने जाना कि रात खाना खाने का उसे ध्यान ही नहीं रहा। रूखे स्वर में हरिमोहिनी ने कहा, 'यह सब तो अच्छी बात नहीं है। मैं जहाँ तक तुम्हारे परेशबाबू को जानती हूँ, उससे तो मुझे नहीं लगता कि उन्हें इतना आगे बढ़ना पसंद होगा- उन्हें तो देखकर ही मन को शांति मिलती है। आजकल का तुम्हारा रवैय्या उन्हें पूरा मालूम होगा तो वह क्या कहेंगे भला?' ...और पढ़े
गोरा - 18
गोरा आजकल अलस्सुबह ही घर से निकल जाता है, विनय यह जानता था। इसीलिए सोमवार को सबेरे वह भोर से पहले ही गोरा के घर जा पहुँचा और सीधे ऊपर की मंजिल में उसके सोने के कमरे में चला गया। वहाँ गोरा को न पाकर उसने नौकर से पूछा तो पता चला कि गोरा पूजा-घर में है। इससे मन-ही-मन उसे कुछ आश्चर्य हुआ। पूजा-घर की देहरी पर पहुँचकर विनय ने देखा, गोरा पूजा की मुद्रा में बैठा है। रेशमी धोती, कंधे पर रेशमी चादर, किंतु फिर भी उसकी विशाल देह का अधिकांश भाग खुला ही था। गोरा को यों पूजा करते देखकर विनय को और भी विस्मय हुआ। ...और पढ़े
गोरा - 19
अपने यहाँ बहुत दिन उत्पीड़न सहकर आनंदमई के पास बिताए हुए इन कुछ दिनों में जैसी सांत्वना सुचरिता को वैसी उसने कभी नहीं पाई थी। आनंदमई ने ऐसे सरल भाव से उसे अपने इतना समीप खींच लिया कि सुचरिता यह सोच ही नहीं सकी कि कभी वे उससे दूर या अपरिचित थीं। न जाने कैसे उन्होंने सुचरिता के मन को पूरी तरह समझ लिया था और बिना बात किए भी वह सुचरिता को जैसे एक गंभीर सांत्वना देती रहती थीं। सुचरिता ने आज तक कभी 'माँ' शब्द का इस प्रकार उसमें अपना पूरा हृदय उँडेलकर उच्चारण नहीं किया था। वह कोई काम न रहने पर भी आनंदमई को 'माँ' कहकर पुकारने के लिए तरह-तरह के बहाने खोजकर बुलाती रहती थी। ललिता के विवाह के सब कर्म संपन्न हो जाने पर थकी हुई बिस्तर पर लेटकर वह बार-बार सिर्फ एक ही बात सोचने लगी, कि अब आनंदमई को छोड़कर वह कैसे जा सकेगी। ...और पढ़े