विनोद की माँ हस्मिती महेन्द्र की माँ राजलक्ष्मी के पास जाकर धरना देने लगी। दोनों एक ही गाँव की थीं, छुटपन में साथ खेली थीं। राजलक्ष्मी महेन्द्र के पीछे पड़ गई- 'बेटा महेन्द्र, इस गरीब की बिटिया का उध्दार करना पड़ेगा। सुना है, लड़की बड़ी सुन्दर है, फिर लिखी-पढ़ी भी है। उसकी रुचियाँ भी तुम लोगों जैसी हैं। महेन्द्र बोला- 'आजकल के तो सभी लड़के मुझ जैसे ही होते हैं।' राजलक्ष्मी- 'तुझसे शादी की बात करना ही मुश्किल है।' महेन्द्र- 'माँ, इसे छोड़कर दुनिया में क्या और कोई बात नहीं है।'

Full Novel

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चोखेर बाली - 1

विनोद की माँ हस्मिती महेन्द्र की माँ राजलक्ष्मी के पास जाकर धरना देने लगी। दोनों एक ही गाँव की छुटपन में साथ खेली थीं। राजलक्ष्मी महेन्द्र के पीछे पड़ गई- 'बेटा महेन्द्र, इस गरीब की बिटिया का उध्दार करना पड़ेगा। सुना है, लड़की बड़ी सुन्दर है, फिर लिखी-पढ़ी भी है। उसकी रुचियाँ भी तुम लोगों जैसी हैं। महेन्द्र बोला- 'आजकल के तो सभी लड़के मुझ जैसे ही होते हैं।' राजलक्ष्मी- 'तुझसे शादी की बात करना ही मुश्किल है।' महेन्द्र- 'माँ, इसे छोड़कर दुनिया में क्या और कोई बात नहीं है।' ...और पढ़े

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चोखेर बाली - 2

आशा को डर लगा। क्या हुआ यह? माँ चली गईं, मौसी चली गईं। उन दोनों का सुख मानो सबको रहा है, अब उसकी बारी है शायद। सूने घर में दाम्पत्य की नई प्रेम-लीला उसे न जाने कैसी लगने लगी। संसार के कठोर कर्तव्यों से प्रेम को फूल के समान तोड़कर अलग कर लेने पर यह अपने ही रस से अपने को संजीवित नहीं रख पाता, धीरे-धीरे मुरझाकर विकृत हो जाता है। आशा को भी ऐसा लगने लगा कि उनके अथक मिलन में एक थकान और कमजोरी है। वह मिलन रह-रहकर मानो शिथिल हो जाता है- प्रेम की जड़ अगर कामों में न हो तो भोग का विकास पूर्ण और स्थाई नहीं होता। ...और पढ़े

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चोखेर बाली - 3

पिकनिक के दिन जो वाकया गुज़रा उसके बाद फिर महेन्द्र में विनोदिनी को अपनाने की चाहत बढ़ने लगी। लेकिन ही दिन राजलक्ष्मी को फ्लू हो गया। बीमारी कुछ खास न थी, फिर भी उन्हें तकलीफ और कमज़ोरी काफी थी। विनोदिनी रात-दिन उनकी सेवा में लगी रहती। महेन्द्र बोला- 'माँ के सेवा-जतन में यों दिन-रात एक करोगी, तो तुम्हीं बीमार पड़ जाओगी।' बिहारी ने कहा- 'आप नाहक परेशान हैं, भैया! ये सेवा कर रही है, करने दो। दूसरा कोई ऐसी सेवा थोड़े ही करेगा।' महेन्द्र बार-बार मरीज़ के कमरे में आने-जाने लगा। एक आदमी काम कुछ नहीं करता, लेकिन हर घड़ी पीछे लगा फिरता है, यह बात विनोदिनी को अच्छी न लगी। तंग आकर उसने दो-तीन बार कहा- 'महेन्द्र बाबू, यहाँ बैठे रहकर आप क्या कर रहे हैं? जाइए, नाहक क्यों कॉलेज से गैर-हाज़िर होते हैं?' ...और पढ़े

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चोखेर बाली - 4

एक ओर चाँद डूबता है, दूसरी और सूरज़ उगता है। आशा चली गई लेकिन महेन्द्र के नसीब में अभी विनोदिनी के दर्शन नहीं। महेन्द्र डोलता-फिरता, जब-तब किसी बहाने माँ के कमरे में पहुँच जाता- लेकिन विनोदिनी उसे पास आने की कोई मौका ही न देती। महेन्द्र को ऐसा उदास देखकर राजलक्ष्मी सोचने लगी- 'बहू चली गई, इसीलिए महेन्द्र को कुछ अच्छा नहीं लगता है।' अब महेन्द्र के सुख-दुख के लिहाज से माँ गैर जैसी हो गई है। हालाँकि इस बात के जहन में आते ही उसे मर्मांतक हुआ! फिर भी वह मयंक को उदास देखकर चिन्तित हो गई। ...और पढ़े

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चोखेर बाली - 5

राजलक्ष्मी ने आज सुबह से विनोदिनी को बुलाया नहीं। रोज़ की तरह विनोदिनी भण्डार में गई। राजलक्ष्मी ने सिर उसकी ओर नहीं देखा। यह देखकर भी उसने कहा- 'बुआ, तबीयत ठीक नहीं है, क्यों? हो भी कैसे? कल रात भाई साहब ने जो करतूत की! पागल-से आ धामके। मुझे तो फिर नींद ही न आई।' राजलक्ष्मी मुँह लटकाए रही। हाँ-ना कुछ न कहा। विनोदिनी बोली- 'किसी बात पर चख-चख हो गई होगी आशा से। कुछ भी कहो! बुआ, नाराज मत होना, तुम्हारे बेटे में चाहे हज़ारों सिफ्त हों, धीरज ज़रा भी नहीं। इसीलिए मुझसे हरदम झड़प ही होती रहती है।' ...और पढ़े

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चोखेर बाली - 6

रात को जब उसे पटलडाँगा के डेरे पर छोड़कर महेन्द्र अपने कपड़े और किताबें लाने घर चला गया, तो के अविश्राम जन-स्रोत की हलचल में अकेली बैठी विनोदिनी अपनी बात सोचने लगी। दुनिया में पनाह की जगह काफी तो उसे कभी भी न थी, इतनी ज़रूर थी कि अगर एक ओर गरम हो जाए, तो दूसरी तरफ करवट बदलकर सो सके। आज लेकिन निर्भर करने की जगह निहायत सँकरी हो गई थी। जिस नाव पर सवार होकर वह प्रवाह में बह चली है, उसके दाएँ-बाएँ किसी भी तरफ ज़रा झुक जाने से पानी में गिर पड़ने की नौबत। लिहाज़ा बड़ी सावधानी से पतवार पकड़नी थी- ज़रा-सी चूक, ज़रा-सा हिलना-डुलना भी मुहाल। ऐसी हालत में भला किस औरत का कलेजा नहीं काँपता। पराये मन को मुट्ठी में रखने के लिए जिस चुहल की जरूरत है, जितनी ओट चाहिए, इस सँकरेपन में उसकी गुंजाइश कहाँ! महेन्द्र के एकबारगी आमने-सामने रहकर सारी जिंदगी बितानी पड़ेगी। फर्क इतना ही है कि महेन्द्र के किनारे लगने की गुंजाइश है, विनोदिनी के लिए वह भी नहीं। ...और पढ़े

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चोखेर बाली - 7

अन्नपूर्णा काशी से आई। धीरे-धीरे राजलक्ष्मी के कमरे में जाकर उन्हें प्रणाम करके उनके चरणों की धूल माथे ली। में इस बिलगाव के बावजूद अन्नपूर्णा को देखकर राजलक्ष्मी ने मानो कोई खोई निधि पाई। उन्हें लगा, वे मन के अनजान ही अन्नपूर्णा को चाह रही थीं। इतने दिनों के बाद आज पल-भर में ही यह बात स्पष्ट हो उठी कि उनको इतनी वेदना महज़ इसश्लिए थी कि अन्नपूर्णा न थीं। एक पल में उसकी चुकी चित्ता ने अपने चिरंतन स्थान पर अधिकार कर लिया। ...और पढ़े

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चोखेर बाली - 8

शाम को महेन्द्र जब उस यमुना के तट पर जा बैठा, तो प्रेम के आवेश ने उसकी नज़रों में, में, नस-नस में, हड्डीयों के बीच गाड़े मोह रस का संचार कर दिया आसमान में डूबने सूरज की किरणों की सुनहरी वीणा वेदना की मूच्छना से झरती जोत के संगीत से झंकृत हो उठी! बारिश जैसा हो रहा था। नदी अपने उद्दाम यौवन में। महेन्द्र के पास निर्दिष्ट कुछ नहीं था। उसे वैष्णव कवियों का वर्षाभिसार याद आया। नायिका बाहर निकली है यमुना के किनारे वह अकेली खड़ी है। उस पार कैसे जाए? अरे ओ, पार करो, पार कर दो। महेन्द्र की छाती के अन्दर यही पुकार पहुँचने लगी- 'पार करो'। ...और पढ़े

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