“रिश्ते सीमेंट और ईंटों की मज़बूत दीवारों में क़ैद हो कर नहीं पनपते... उन्हें जीने के लिये खुली बाहों का आकाश चाहिये। विवाह दो प्राणियों का नही दो परिवारों का भी होता हैं बारात की रस्मो में दुल्हन की उहापोह दर्शाती दूसरी कड़ी कविता वर्मा जी की कलम से