आसमान .. धरती ... बादल... हवा .... मिटटी .... पानी ..... कल कल बहती नदिया , भोर .... हर जगह ही तो संगीत बिखरा पड़ा है। .. हर तरफ .. खुबसूरत कविता .... ग़ज़ल ...... कहानियाँ बिखरी सी पड़ी है ..... और मैं - संध्या -उर्फ़ सांझ-सवेरे आहिस्ता आहिस्ता समेटती हूँ इन शब्दों को ..... और फिर ये जेहन में उतर जाते है है - इख्तियार करते है एक शक्ल , अहसास का जामा पहन कर बस लाई हूँ हूँ फिर से आप सबके लिए - गुलिस्ता - मेरी तीसरी ebook . धन्यवाद संध्या राठौर