श्रीकांत - भाग 7

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रास्ते में जिन लोगों के सुख-दु:ख में हिस्सा बँटाता हुआ मैं इस परदेश में आकर उपस्थित हुआ था, घटना-चक्र से वे तो रह गये शहर के एक छोर पर और मुझे आश्रय मिला शहर के दूसरे छोर पर। इसलिए, इन पन्द्रह-सोलह दिनों के बीच उस ओर जा न सका। इसके सिवाय, सारे दिन नौकरी की उम्मीदवारी में घूमते इतना थक जाता था कि शाम के कुछ पहले वास-स्थान पर लौटने पर इतनी शक्ति ही नहीं बचती थी कि मैं कहीं भी बाहर जाऊँ।