वे दोनों अभी नए आए थे, एक वो, एक उसकी वो। वो चश्मा लगाए गोरा और लंबा और उसकी वो साधारण नाक-नक्श की साँवली-सी। पूरी लाइन में एक ही कमरा खाली था—बिजली दफ्तर के महेंद्र बाबू का, जो उन्होंने अपनी अधेड़ावस्था की फुरसत में बनवा लिया था, बुढ़ापे के आश्रय या किराए वगैरह के लिए। ये लोग उसी में आए थे।