1930 के दशक में बिहार में पिछडे और दलित समुदायों के बीच त्रिवेणी संघ ने एक प्रखर सामाजिक, सांस्कृतिक आदोलन खडा किया था। इस आंदोलन का व्यापक असर तत्कालीन राजनीति पर भी पडा था और कांग्रेस को अपने उच्च जातीय चरित्र पर पुनर्विचार के लिए मजबूर होना पडा था। आजाद के बाद उत्तर भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा के साथ जो राज्य सरकारें बनीं, उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि इसी संघ ने तैयार की थी। कथात्मक शैली में लिखा गया यह आलेख उसी त्रिवेणी संघ के अनछुए पहलुओं को उद्घाटित करता है।