एक कहानी उपन्यास की

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----जंगल -----                            आज हम जो भी पढ़ने की क्लासे पढ़ के नवयुवक बड़े बड़े ओहदो पर लग गए है, या लगने जा रहे है, उनमे से कुछ बन रहे है, परवार का निर्वहन हम कुछ चलाकिया से करते है, कुछ आने वाली संतान से बच जाये। उसको हम समुचित धन कहते है, जो सब खर्चो को निकाल कर बनता है।जुड़े हुए पैसे बच्चो के काम आये गे.... यही सोच है सब की। अच्छी सोच है, अक्सर माँ - बाप ही सब कुछ  सोचते है,  हमारी औलाद दर दर की ठोकरे खा के भी जिन्दा है, कैसे। बहुत गिने हुए लोग समलित होते है, जो वो चाहता है, वही तुम कर सकते हो, इनसे जयादा शायद कुछ भी नहीं। दिल मे जिनके लिए अटूट प्यार रहता है, कभी कभी वो प्यार ज़हर बन जाता है, बस इतना ही प्रयास।