कौवा बाबा गोपी यूँ तो सुबह जल्दी उठने में कंजूसी बरतता था, परन्तु आजकल गर्मियों की सुस्ती भरी भोर भी उसे बिस्तर पर रोक पाने में अपने को ठगा सा महसूस कर रही थी। मानो अस्सी वर्ष का वो बूढ़ा अपने बुढ़ापे का लबादा फेंक कर पुनः जवान हो गया हो। अरूणोदय पूर्व ही वह एक सैनिक की भांति अपना मोर्चा सम्भालने के लिए पूरी तरह तैयार हो जाता। तन पर धोती और बंद गले का कमीज़, सिर पर सफेद टोपी और हाथ में बाँस की लाठी लिए, वह अपनी मंज़िल को तलाशता हुआ धीरे-धीरे खेतों की ओर निकल