जीवन सरिता नौन - ४

  • 870
  • 258

जड़ – जंगम, घबड़ाये भारी, हिल गए पर्वत सारे। त्राहि। त्राहि मच गई धरा पर, जन जीवन हिय हारे।।  ताप तपन पर्वतहिले, चटके, स्रोत निकल तहांआए।  निकले उसी बाव़डी होकर मीठा जल बावडी का पाए।।18।। जड़ जंगम, स्‍याबर सबका, रक्षण प्रभु ने कीना। यौं ही लगा,इसी बावडी ने, अमृतजल दे दीना।।  इक झांयीं सिया सी मृगाजल में, लोग जान न पाए। लुप्त हो गई इसी बाव़डी, यह संत जन रहे बताए।। 19।। जंगल,जन- जीवौं हितार्थ, प्रकटी तहां, गंगा आई। सब जन जीवी मिलकर, करतेस्‍तुति मन भाई।। सिया बाबड़ी गंग, नाम धरा,सब संतन ने उसका। प्रकटी- गंगा भू-लोक, सुयश छाया जग