कोमल की डायरी - 15 - तुम भी गुनगुनाने लगे

पन्द्रह तुम भी गुनगुनाने लगे                             मंगलवार, ग्यारह अप्रैल 2006 पूरा एक महीना हम लोग चलते रहे, इस गाँव से उस गाँव, इस पुरवे से उस पुरवे। चने के दाने ने बड़ी मदद की। भिगोकर चबाते दिन आराम से कट जाता। एक-दो गिलास मट्ठा पी लिया जाता। किसी सार्थक कार्य में लगने पर भूख प्यास का ध्यान कहाँ रह जाता है? गाँव के लोग आतिथ्य में पटु। कहीं गुड़ कही मट्टे से स्वागत। स्वागत में आत्मीयता। अनौपचारिकता का नाम नहीं। एक छोटे से पुरवे में रहता है भीखी। वह हम