हम दोंनो ऊपर छत पर गए। शाम सुनहरी काली थी। वहाँ-"तो अब क्या नुकसान पहुँचाना चाहती हों उसे?", मैंने उससे पूछा,वह बहुत अचंभित थी।"क्या? भंडाफोड़ की उम्मीद नहीं थी?",फिर वह बड़बड़ाने लगी, "नहीं! मैंने कुछ नहीं किया! वृषा...","मेरा नाम मत लो! मुझे याद नहीं है कि मैंने तुम्हें मुझे मेरे नाम से बुलाने की अनुमति दी थी?",वह सावधानी से पकड़ी गई थी, "तो तुम उससे या मुझसे क्यों मिलना चाहती थी? देखना चाहती थी कि क्या वह काफी पीड़ित है या नहीं? 'कमी हो तो उसे भी पूरा कर दूँ।' ?",वह उत्तेजित हो गई, "नहीं! आप ऐसा कुछ कैसे कह