उजाले की ओर –संस्मरण

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=================== मत नाराज़गी ओढ़िए, बिछाइए, चंद दिन को आए हैं, मुस्कुराइए! परेशान हो उठती हूँ जब देखती हूँ छोटी छोटी बातों में संवाद से तकरार होने लगती है। मैंने, तूने - - - तू, तेरा ! मुझे लगता है कि हमारा नाम भी केवल पुकार व पहचान के लिए ही है।इसमें 'मैं' की गुंजाइश कहाँ है? बहुत बार मन में आता है कि आख़िर हूँ कौन मैं? पाँच तत्वों से निर्मित एक देह भर! वह भी अपनी कहाँ दोस्तों! जो हमारे भीतर हैं, प्राकृतिक रूप से हमें मिले हैं, उनका कोई स्वरूप है कहाँ? वे केवल अहसास भर हैं जैसे