मैं तो ओढ चुनरिया - 55

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55 घर और शहर पीछे छूट गया था और एक नया शहर मेरा इंतजार कर रहा था या सीधे सीधे कहूँ तो शहर का मैं इंतजार कर रही थी । थोङी थोङी देर में कोई स्टेशन आता तो बराती वहाँ उतर जाते , चाय लेते और चुसकियाँ ले कर पीने लगते । कोई एक कप मेरे हाथ में थमा जाता । एक दो बार तो जैसे तैसे मैंने चाय पी ली पर उसके बाद तो गले से ही न उतरती । हे भगवान ये लोग कितनी चाय पीएंगे । गाङी अंबाला कैंट पहुँची तो इनकी नींद खुली – तू सोई