कंचन मृग - 36. भीत नहीं हूँ मैं

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36. भीत नहीं हूँ मैं- चित्ररेखा उद्यान में पुष्प इकट्ठा कर रही थी। पुष्पिका के आ जाने से उसका काम बढ़ गया था। चन्द्रा के लिए जिन पुष्पों को चुनती उसी तरह के पुष्प पुष्पिका के लिए भी। वही पुष्पिका और चन्द्रा के बीच संवाद सूत्र का भी काम करती। सूर्योदय होने में अभी कुछ देर थी। क्षितिज के छोर सिन्दूरी होने लगे थे। कुसुमित पुष्पों की सुगन्ध से उद्यान सुवासित था। चित्ररेखा ने दृष्टि घुमाई तो चन्दन पीछे खड़ा था। ‘मैं कुछ सहायता करूँ,’ उसने कहा। ‘पुष्प मुझे ही चुनना है इसमें सहायता की कोई आवश्यक ता नहीं। तुम्हें