श्री हनुमान् जी

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यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम्। बाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम् ॥ प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन। जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥ भगवान् शंकर के अंश से वायुके द्वारा कपिराज केसरीकी पत्नी अंजनामें हनुमान्जीका प्रादुर्भाव हुआ। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामकी सेवा शंकरजी अपने रूपसे तो कर नहीं सकते थे, अतएव उन्होंने ग्यारहवें रुद्ररूपको इस प्रकार वानररूपमें अवतरित किया। जन्मके कुछ ही समय पश्चात् महावीर हनुमान्जीने उगते हुए सूर्यको कोई लाल-लाल फल समझा और उसे निगलने आकाशकी ओर दौड़ पड़े। उस दिन सूर्यग्रहणका समय था। राहुने देखा कि कोई दूसरा ही सूर्यको पकड़ने आ रहा है, तब वह उस आनेवालेको