उजाले की ओर –संस्मरण

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================== स्नेहिल नमस्कार मित्रों   लाली मेरे लाल की जीत देखूं तित लाल,  लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गई लाल ! हम अपनी तमाम उम्र स्वयं को खोजते ही रहते हैं जैसे मृग की नाभि में कस्तूरी और वह बन -बन ढूँढता फिरता रहे, वैसे ही हमारे भीतर ईश्वर विराजमान हैं और हम उन्हें न जाने कहाँ कहाँ खोजते फिरते हैं | दरअसल हम स्वयं को ही कहाँ जानते हैं, हम दूसरों के भीतर झाँकने का प्रयत्न अधिक करते हैं स्वयं को खोजने, जानने के बजाय | यह हमारे व्यवहार का ही एक अंग बन गया है जिसके