रुकेगी नहीं वसुंधरा

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डॉ. प्रभात समीर कॉलिज से घर तक का फ़ासला भावशून्य तरीके से तय करके, दरवाजा़ खोलकर वसुन्धरा कुर्सी पर निर्जीव सी जो गिरी तो उठने का नाम ही नहीं लिया । शाम से रात, रात से सुबह हो गयी, लेकिन वह जैसी थी वैसी ही पड़ी रही ।  अपने करियर की शुरुआत से आज तक की घटना उसकी आँखों के आगे से किसी फ़िल्म की तरह गुज़रती जा रही थी, ऐसा लग रहा था जैसे कॉलिज में घुसने के साथ ही वह किसी युद्ध में झोंक दी गयी थी और सिर्फ़ लड़ती चली जा रही थी और आज कवच उतारकर