उजाले की ओर - - - संस्मरण =================== मित्रो ! स्नेहिल नमस्कार मैं उसे अक्सर मुँह लटकाए देखती थी। सामने के फ़्लैट की बालकनी के सुंदर से लकड़ी के झूले पर उसका तन होता और मन जाने कहाँ भटक रहा होता। मेरे और उसके बीच की दूरी थी लेकिन मैं उसके चेहरे पर पसरे विषाद को भाँप सकती थी और उससे असहज हो जाती थी। अक्सर मित्र, पहचान वाले और हाँ स्नेह करने वाले मुझसे पूछते हैं, "सबके फटे में टाँग अड़ाने का आख़िर शौक क्यों है तुम्हें?" कुछ उत्तर नहीं दे पाती तो फिर एक व्यंग्य उछलकर