[श्रीभाईजी के शब्दों में]“ प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद महामना श्रीमालवीयजी से मेरा परिचय लगभग सन् 1906 से था। उस समय मैं कलकत्तेमें रहता था। वे जब-जब पधारते, तब-तब मैं उनके दर्शन करता। मुझपर आरम्भ से अन्त तक उनकी परम कृपा रही और वह उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी। उनके साथ कुटुम्ब-सा सम्बन्ध हो गया था। वे मुझको अपना एक पुत्र समझने लगे और मैं उन्हें परम आदरणीय पिताजी से भी बढ़कर मानता। इस नाते मैं उन्हें "पण्डितजी" न कहकर सदा "बाबूजी" ही कहता। घर की सारी बातें वे मुझसे कहते। कुछ समय तो मैं उनके बहुत ही निकट-सम्पर्कमें रहा, इसलिये मुझको उन्हें बहुत