क़ाज़ी वाजिद की कहानी - पक्षी प्रेम सवेरे- सूरज उगने से पहले- झाड़ियों में कबूतरों की गुटरगूं मुझे खुली खिड़की से सुनाई देने लगती थी। पहाड़ की ढलान पर मुर्गे बांग देने लगते थे। मैं सोचता, काश मेरा भी एक मुर्गा होता। मैंने पापा से मुर्गा दिलाने को कहा, उन्होंने मना कर दिया। मम्मी ने तो हां कर दी थी, लेकिन पापा ने कहा, 'नहीं।' अगर तुम मुर्गी दिलाने को कहते, तो मैं ला देता। मुर्गी कम से कम अंडे तो देती है, पर मुर्गा किसी काम का नहीं, बांग देकर मुर्गियों को बुलाता रहता है। लेकिन पापा मैं तो