जीवन सूत्र 206 कर्मयोगी होता है ईर्ष्या और द्वंद्व से परेगीता में भगवान श्री कृष्ण ने महान योद्धा अर्जुन से कहा है: -यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4/22।।इसका अर्थ है, जो(कर्मयोगी)फल की इच्छा के बिना,(कार्यक्षेत्र में) जो कुछ मिल जाए,उसमें संतुष्ट रहता है।जो ईर्ष्या से रहित,द्वन्द्वों से परे तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है,वह समान भाव रखने वाला व्यक्ति कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता। भगवान श्री कृष्ण ने कर्मयोगी के गुणों के संबंध में चर्चा करते हुए उसे अत्यंत संतोषी स्वभाव का बताया है। कर्म करते चलें। जो मिल जाए,वह ठीक और जो हमारे पात्र