जीवन सूत्र 201 कर्मों से निर्लिप्त रहने वाला कर्मबंधन से अलग ही रहता है गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है:-त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।4/20।।इसका अर्थ है,जो व्यक्ति कर्म और उसके फल की आसक्ति का त्याग करके संसार में किसी के आश्रय से रहित और सदा तृप्त(संतुष्ट) है,वह गहराई से कर्मों को करता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता है।जीवन सूत्र 202 जल में कमल के पत्ते की तरह रहें आसक्ति रहित कर्मों को करते हुए भी जल में कमल की भांति जल से अर्थात कर्मों के प्रभाव से निर्लिप्त रह पाना अत्यंत