हवा ! ज़रा थमकर बहो

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हवा ! ज़रा थमकर बहो, मन की बयार में डूबते-उतरते अहसासों का स्निग्ध चित्र ===================== रोचक शीर्षक में बहती बयार में मन की गांठ का खुल खुल जाना और पन्नों में से शब्दों का निकलकर फड़फड़ाना मुझे न जाने क्यों अपने साथ रिलेट कर देता है | वैसे इस 'क्यों?' का उत्तर इतना कठिन भी नहीं होता क्योंकि हम कभी न कभी जाने-अनजाने में उस बयार में स्नान कर चुके होते हैं | लेकिन कमाल यह है कि चरित्र, परिस्थितियाँ यहाँ तक कि संवादों की छनक भी मुझे लगती है कि यह तो मैं जानती हूँ या फिर यह मेरे