मैंने और दादा जी ने चिंतन किया तो हमने देखा। कई लोग ऐसे भी हैं जिनका कोई घर- द्वार नहीं है। या जो बाहर से रोजगार की तलाश में आए हैं। उनको कोई रोजगार नहीं मिला है। और वहीं सड़क पर ही सो जाते हैं। उनके खाने का कोई हिसाब- किताब नहीं है। कपड़ों का कोई हिसाब- किताब नहीं है। कोई खास बिस्तर भी नहीं है। यह देखकर दादाजी और मैंने एक प्रोग्राम बनाया और हमने एक विशाल बिल्डिंग एक अच्छी सी जगह देखकर बनवा दी। उस बिल्डिंग में सभी अत्याधुनिक सुविधाएं थी। हालांकि हमारा काफी पैसा लगा। लेकिन हमारे