पेंडुलम

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“पेंडुलम”विद्या ने जूते हाथ में लिए, दुपट्टा गले में लपेटा और उठ कर रेत पर नंगे पांव चलने लगी। दूर क्षितिज पर थके हारे सूरज का इंतजार करती धरती से मिलन का दृश्य आल्हादित कर रहा था। संपूर्ण गगन जैसे आलोड़ित हो रहा था। सूर्यास्त, इंतजार से राहत का समय है। पशु, पक्षी, इंसान सभी तो अपने विश्रामगृह की तरफ लौटते है। उनके लिए इंतजार में रत आंखें सुकून पाती हैं। एक नई आशा में रात्रि का अवसान हो जाता है। एक नई सुबह इंतजार में रहती है। सुबह रूपक है आशा का विश्वास का....खुशी का, उमंग का। “लेकिन”...., विद्या