उठा पटक- प्रभुदयाल खट्टर

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आजकल की फ़िल्मों या कहानियों के मुकाबले अगर 60-70 के दशक की फिल्मों या कहानियों को देखो तो उनमें एक तहज़ीब..एक अदब..एक आदर्शवादिता का फ़र्क दिखाई देता है। आजकल की फ़िल्मों अथवा नयी हिंदी के नाम पर रची जाने वाली कहानियों में जहाँ एक तरफ़ भाषा..संस्कृति एवं तहज़ीब को पूर्णरूप से तिलांजलि दी जाती दिखाई देती है तो वहीं दूसरी तरफ़ पहले की फिल्मों एवं कहानियों में एक तहज़ीब वाली लेखन परंपरा को इस हद तक बनाए रखा जाता था कि उन फिल्मों के खलनायक या वैंप किरदार भी अपनी भाषा में तमीज़ का प्रयोग किया करते थे कि अगर