व्यंग्य कामवाली –बाहर वाली –घरवाली यशवंत कोठारी इन दिनों बड़ी मुसीबत है ,बढती उम्र के कारण समस्याएं भी बढ़ रहीं हैं.सर्दी है काम वाली गाँव चली गयी है ,घर वाली से काम नहीं हो पाता है बाहर वाली मिलती नहीं सब कुछ अस्त –व्यस्त हो गया है . इधर हम दोनों के घुटनों के दर्द बढ़ गए हैं.सर्दी के मौसम में लड्डू खाने के बजाय पेन किलर खाने पड़ रहे हैं. डाक्टरों के बड़ी चांदी है ,खूब सारे टेस्ट लिख देते हैं खूब सारा कमीशन मिलता है.रोगी एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भागता रहता है ,घुटन को नहीं डाक्टर को