आदित्य को समझ नहीं आ रहा था कि जो कुछ उसने देखा क्या वह सत्य था? जिस भव्य मूर्ति को वह बरसों से अपने दिल-दिमाग में सहेज कर बैठा था, वह इस प्रकार क्षणभर में खण्डित होगी, उसने साचा न था। देखा जाये तो इस स्थिति के लिये वह खुद भी जिम्मेदार था, क्या जरूरत थी दफ़न हो चुके अहसासों को पुनर्जीवित करने की ? उस दिन अनुज के ड्राइंगरूम में बैठ उसका इंतजार करते समय मेज पर पड़ी पत्रिका के पन्ने पलटते-पलटते अचानक एक कविता के नीचे लिखने वाले के नाम पर निगाहें थम गईं। दो-तीन बार पढ़ा, ‘अन्तिमा’,