आँख की किरकिरी - 30

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(30) लेकिन इन चिंताओं और संकोच का मौका ही न रहा। हवेली में पहुँचते ही आशा दौड़ी-दौड़ी आई और बिहारी से बोली - भाई साहब, जरा जल्दी आओ, माँ को देखो जल्दी!  बिहारी से आशा की खुल कर बातचीत ही पहली थी। दुर्दिन का मामूली झटका सारी रुकावटों को उड़ा ले जाता है - जो दूर-दूर रहते हैं, बाढ़ उन सबको अचानक एक सँकरी जगह में इकट्ठा कर देती है।  आशा की इस संकोचहीन अकुलाहट से बिहारी को चोट लगी। इस छोटे-से वाकए से ही वह समझ सका कि महेंद्र अपनी गिरस्ती की कैसी मिट्टी पलीद कर गया है।  बिहारी