आँख की किरकिरी - 27

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(27) महेंद्र - वे हैं कहाँ?  आशा - अपने सोने के कमरे में हैं। नींद नहीं आ रही है।  महेंद्र - अच्छा, चलो, उन्हें देख आऊँ।  बहुत दिनों के बाद आशा से इतनी-सी बात करके महेंद्र जैसे हल्का हुआ। किसी दुर्भेद्य किले की दीवार-सी नीरवता मानो उन दोनों के बीच स्याह छाया डाले खड़ी थी - महेंद्र की ओर से उसे तोड़ने का कोई हथियार न था, ऐसे समय आशा ने अपने हाथों किले में एक छोटा-सा दरवाजा खोल दिया। आशा सास के कमरे के दरवाजे पर खड़ी रही। महेंद्र गया। उसे असमय में अपने कमरे में आया देख कर