डॉ प्रभात समीर मेरे घर के दरवाज़े पर कॉल बैल लगी हुई है, जिसके माध्यम से कोई भी आगन्तुक अपने आने की सूचना दे सकता है, लेकिन मेरी काम वाली बाई को तो ठक-ठक करके दरवाज़ा बजाने में ही आत्मिक सुख मिलता है । अपने तर्कों के सहारे वह इस तरह दरवाज़ा पीटने के सुख और कॉल-बैल के देर तक बजते रहने की अप्रियता को ऐसे प्रस्तुत करती है कि डाँटकर कुछ कहने की गुँजाइश ही नहीं रहती। आज सुबह-सुबह जब दरवाज़ा बजा तो मुझे आश्चर्य हुआ । बाई और इतनी सुबह ! आज तक तो मेरा गुस्सा, मान-मनुहार, तर्क-तथ्य—किसीका