नवगीत - नए अनुबंध ( पांच नवगीत)

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१-नई पौधनई पौधकी बदचलनी को बरगद झेल रहे, ऊँची-नीची पगडंडी पर पाँव फिसलते हैं , एक-दूसरे से मिलजुल कर कब ये चलते हैं .गुस्से की अगुवाई मे कुछ ऐसे खेल रहे . नातों की सीमाएँ केवल स्वार्थों तक जाती , लाभ कमाने की इच्छा बस अर्थों तक जाती .लाभ-हानि के चक्कर मे ये पापड़ बेल रहे . स्वाभिमान कहकर घमंड को ये इतराते हैं , परंपरा को भूल नए अनुबंध बनाते हैं . अपने मन की करने मे होते बेमेल रहे . सीख नही,इनको मनकी करनेकी छूट मिले , मेल मिले अपने कामों में या फिर फूट मिले .रहें अकेले खुश समाज मे ये तो फेल रहे.