एक सफर ऐसा भी...

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बात करीब बीस वर्ष पुरानी है। मैं अपने माता–पिता और छोटी बहन के साथ लोकल ट्रेन पकड़ दूसरे शहर को जा रहा था। ट्रेन के जिस डब्बे में हम सब चढ़े थें, उसमें भीड़–भाड़ न के बराबर थी। इसलिए, चढ़ते ही हम सब अपनी मर्जी के सीट पर आकर बैठ गए। मैं भी खिड़की वाली सिंगल सीट पर जा बैठा। हमलोगों के आसपास कोई न बैठा था। हालांकि, थोड़े आगे वाली सीटों पर कुछ लोगों की आवाजें सुनाई दे रही थी। अपने तय समय पर ट्रेन खुली। थोड़ी देर चलने के बाद, किसी छोटे से स्टेशन पर आकर खड़ी हो