संस्कृत वांग्मय में अंतरिक्ष विज्ञान

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ॐ चित्रम्` देवानामुदगादनीकम्।चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्रे:।आप्रा द्यावापृथ्वी अंतरिक्षम्सूर्य आत्मा जगतस्तस्युपपश्च ।।( यजु 7/42 )(ऋग् 1/ 115/1 )( शुक्ल यजुर्वेद 16)ऋग्वेद के इस मंत्र में सूर्य देव की स्तुति करते हुए कहा गया है कि प्रकाशमान रश्मियों का समूह सूर्य मंडल के रूप में उदित हो रहा है। यह मित्र ,वरुण, अग्नि और संपूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं। इन्होंने उदित होकर भूलोक, पृथ्वी ,अंतरक्ष को अपने देदीप्यमान तेज से सर्वत : परिपूर्ण करदिया है। इसमें अंतरिक्ष को देदीप्यमान करने वाला सूर्य देव को माना गया है। एक अन्य स्थान पर भूर्लोक भुवर्लोक और स्वर्लोक इन तीनों लोको को ब्रह्मांड स्वरूप होने