पहला - मेरी कविताएँ

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मेरी नींदसारा दिन जागूँ तो, बेजान-सी हो जाती हूं।साँस लेती हूं, पर निढ़ाल-सी हो जाती हूं।एक आँख लगने का इंतज़ार है, मुझेफिर सांस लेती मेरी ये आँखें है, जिन्हें मैं अक्सर बोलते सुनती हूं, एक गूंगी ज़बान में।सारा दिन थकती हैं, ये पढ़ते हुएसारा दिन थकती हैं, ये देखते हुएफिर एक रात का अंधेरा आता हैफिर वो सारी नींद उड़ा ले जाता है।जो मैं दिन के उजाले में, आँख बंद भी करलूँवो फिर नही आती दुबारा, मुझे सुलाने को।जो मैं एक क्षण के लिए, आराम भी करलूंवो फिर नही आती दुबारा, मुझे सुलाने को।मेरी नींद को अब मैं क्या नाम