मृग मरीचिका - 1

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खंड-1 शतरंज की बिछी हुई बिसात पर सबको मोहरा बना कर खेलती हुई प्रकृति कितनी निष्ठुर हो उठी होगी जब उसने मानव मन के अंदर 'प्यास' के अंकुर रोपे होंगे कि अपनी स्थिति से सदैव असंतुष्ट, थोड़ा सा और प्राप्त कर लेने की आतुरता में, किसी न किसी मृग मरीचिका के पीछे भागते रहने को अभिशप्त हम, जिस चीज को प्राप्त कर चुके होते हैं, उसका आस्वादन करने तक का वक्त नहीं होता है हमारे पास! बचपन की न जाने कौन सी नासमझ, अंजान राह पर मेरी भी इस जिजीविषा से मुलाकात हो गई थी। एक थे हमारे देवेन्द्र भइया,