कहते हैं कि मनुष्य की कल्पना का कोई ओर छोर नहीं है। इसमें अपार संभावनाएं मौजूद होती हैं कुछ भी..कहीं भी..कैसा भी सोचने के लिए। मनुष्य अपनी कल्पना से कुदरत में कुछ ऐसी दबी छिपी चीज़ें या उनके होने की संभावना खोज लेता है जो दरअसल कहीं होती ही नहीं जैसे कि किसी भी पेड़, पौधे, पहाड़, झाड़ झंखाड़ या फिर किसी जर्जर..पुरानी या मटमैली दीवार की बेतरतीब बन चुकी आड़ी तिरछी रेखाओं में वह कभी मनुष्याकृतियाँ तो कभी अपनी श्रद्धानुसार अपनी पसन्द के देवी देवताओं अथवा असुरों के सांकेतिक चित्र कभी खोज तो कभी गढ़ लेता है। जो दरअसल