मैरी कविता तुम हो

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मैने जब जब लिखा तुम्हे ही देख देख लिखा मुझे लिखने का कोई सोख नही था तुम्हे जब भी देखा मेरी अंतर आत्मा से अनेक शब्दों की जैसे उत्पत्ति हो रही हो ओर मेने उन शब्दों की एक सुन्दर सी माला पिरोह कर तुम्हे ही पहनाई है।मेरी कविता का शार तुम हो,मेरे लिखने की प्रेरणा तुम हो तुम कोई ओर नई मेरी कविता की आत्मा हो। तुम पर में क्या लिखू मेंरा में संसार तुम ही हो।जब कभी तुम्हे लिखने या पढ़ने या के योग्य खुद को पाता हूं, खुद को बड़ा ही गोरवान्वित पाता हूँ मेरी प्यारी बाबू...मै कभी