आमतौर पर किताबों के बारे में लिखते हुए मुझे कुछ ज़्यादा या खास सोचना..समझना नहीं पड़ता। बस किताब को थोड़ा सा ध्यान से पढ़ने के बाद उसके मूल तत्व को ज़हन में रखते हुए, उसकी खासियतों एवं खामियों को अपने शब्दों में जस का तस उल्लेख कर दिया और बस..हो गया। मगर कई बार आपके हुनर..आपके ज्ञान..आपकी समझ की परीक्षा लेने को आपके हाथ कुछ ऐसा लग जाता है कि आप सोच में डूब..पशोपेश में पड़ जाते हैं कि इसके बारे में आप कम शब्दों में ऐसा क्या सार्थक लिखें जो पहले से लिखा ना गया हो।दोस्तों..आज मैं बात कर