कविताएँ

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1* माँ का बरगद होना—-++————माँ जो कभी बरगद सी थीं , हर तरफअब व्हीलचेयर पर बैठी हैं , सिमट करन बोलना, न चलना,न खाना बस देखती जाती हैं एकटक , निहारती रहती हैं अपलकजैसे पूरी देह का दर्द ,तरल हो समा गया हो आँखों में बहुत कुछ कहती हैं आँखें उनकीफिर भी , नहीं कह पातीं कुछ और छूट जाता है सब अनकहा ।इतनी अवश, निरीह और असहायतो कभी नहीं थीं माँउनकी गूँजती आवाज़ बेसाख़्ता खनकती हँसीजैसे चस्पाँ कर दिया है किसीनेदीवारों पर, छत पर छितराती तुलसी के पत्तों पर , फूलों के गमलों परशायद , तभी आँखें मूँद कर भी सुन सकती हूँ माँ की वो दमदार आवाज़ , हँसी की गूंज हवा में देर तक तैरते शब्द पूजा की घंटी की टुनटुनाहट और अगरूधूम से सुवासित मंत्रोच्चार ।कौंध जाता है अब भी अक्सर ओंकार उच्चारित करता माँ का स्वर कभी सुनाई पड़ती है उनकी डाँट - फटकार कभी प्यार से पुकारती हैं नाम मेरा मैं ज़रा भी स्वीकारना नहीं चाहती किमाँ अब घिरी हुई हैं कृत्रिम मशीनों से नलियों से,दवाइयों की छोटी बड़ी शीशियों से इन सारी दवाइयों के तीव्र गंध और मशीनों के मॉनिटर पर उठती गिरती रेखाएँ, बेहद डराती हैं मुझे ।माँ का मोबाइल नंबर अब भी जस का तस है मेरे फ़ोन मेंअब भी क़रीब - क़रीब हर दिन बजता है रिंगटोन फ़्लैश होता है माँ का नाम स्क्रीन परबातें भी होती हैं इसी नंबर परबस फ़र्क़ यही होता है कि माँ की आवाज़ नहीं होती , उस तरफ़ ।माँ की इस टीस को महसूस कर चुप रहना चाहती हूँ एक पूरे दिनयही सोचकर कि मेरे कंठ में भी आवाज़ नहीं है पर कुछ ही घंटों में छटपटा करअकुलाहट में चीखने लगती हूँ ज़ोरों से औरअपनी पलकों से सोख लेना चाहती हूँ माँ की अव्यक्त पीड़ा , अनकहा दर्द ।पर मैं बिसार नहीं पातीमाँ की खोई आवाज़ को भूले शब्दों कोमशीनों की कृत्रिमता को निश्चय ही माँ का होना नेमत है,जानती हूँ कि माँ हैं बावजूद इसके ढूँढती हूँ माँ कोअपने आसपास उनके होने को चाहती हूँ फिर से आ जाये चेहरे पर उनके वही पुराना भाव मीठी सी मुस्कुराहट और एक अदद आवाज़ ।2* डूबना प्रेम में-----------प्रेम की पुख़्ता किन्तु कुछ खुरदुरीपथरीली ज़मीन और लहुलुहान मनस्मरण कर रहा कृष्ण -प्रेम में लीन बेसुध मीरा कोकिया जिसने सहज ही विष -पानप्रेमकी पराकाष्ठा !हलाहल का प्यालाछलकता हुआआँखें मूँद कर पीना होगा तुम्हें भी तब नीलकंठेश्वर कहलाओगे तुमहमारे प्रेम काआग़ाज़ भी यही होगाअतृप्त आत्मा गोता लगातीउदात्त नदी सीप्रेम में लिपटीआसमान में अपनी प्रेयसका नाम उकेरतीचखना चाहती है प्रेम कोबनना चाहती है सुर्ख़ लालकभी आसमानीबाँहों में समेटे ढेरों चाँदनीगुनगुनाना चाहती हैकोई सुरीला संगीतआवेगों के साथबिना किसी शर्त केक्योंकिप्रेम कभीप्रतिदान नहीं माँगता ।~~~~~~॰~~~~~ 3* कुकुरमुत्ते——————कोयले खदान के आस- पासरहती हैं ये मेहनतकश औरतें ,करती हैं काम,ढोती हैं ,ईँट- गारे , पत्थर,कोयला, कभी लोहा- लक्कड़ढोती हैं बोझाहोंठों पे लिये मुस्कानमेहनतकश औरतेंबाँधती हैं , बड़े सलीक़े से साड़ी अपनीऔर बाँधती हैं छौने को भी अपनेअपनी छाती से चिपका करबड़े सूक़ून से सोता हैदूधमुँहा बच्चामाँ की देह से खींच कर ऊष्मा धूल, मिट्टी,दुनियाँ की कर्कश आवाज़ों से बेख़बर ।पैरों की फटी बिवाई की पीर छुपायेपत्थर सी खुरदुरी हथेली से टेरती जाती हैंचेहरे पर जमी समय की मोटी गर्दढोतीजाती हैं माथे परजीवन के असंख्य बोझऔर झाड़ती जाती हैं देहऔर उसपर चिपकी , फँसी पड़ी,हैवानों की कई जोड़ी आँखेंजो सिर्फ चिपकती ही नहीं भेद जाती हैं देह को ।ये वही औरतें हैं,जिनकी देह में हम ढूँढते हैं कला,मिलतीं हैं ये कभी बी॰प्रभा की पेंटिंग में कभी हमें इनमें दिखती है झलकमोनालिसा की ,तो कभी गजगामिनी की ।बड़ी बेफ़िक्री से मुस्कुराती हैं ये औरतेंदो साँवले होंठों के बीच फँसे सुफ़ेद झक्क़ मोती से दाँतजैसे कई सफ़ेद कबूतर बैठें हों पंक्तिबद्ध डरती हैं ये किसुन कर ज़ोरों की हँसी इनकीकहीं ये सफ़ेद कबूतरउड़ कर समा ना जायें नीले आसमान में ।शायद तभी हँसती हैं ये हौले- हौलेकाँधे पर लाल गमछा लिए।खोलती हैं अपने खाने का डिब्बानिकालती हैँ चाँद सी गोल रोटियाँ धरती हैं उसपर भरवाँ मिर्च के अचारऔर कच्चे प्याज़ ।तोड़ती हैं निवाले और देखती हैं ,एकटक ,एक ही जगह ,गड़ाती हुई नज़र धरती पर ।सोचती हैं - औरत और धरतीकच्ची गीली मिट्टी ही तो हैं!गिरते ही बीज जहाँ अँखुआ जाते हैं और उग आते हैं बिरवे , पल्लवित होते हैं प्रेमउगते हैं सपने ।और सोचती हैं ये भी किग़रीबों के सपने होते हैं बड़े बेमुरव्वत फिसल कर आँखों से सीधे समाजाते हैं या तोगोबर की ढेर मेंया फिरभीगी गीली मिट्टी के दलदल मेंऔर तबवहाँ उग आते हैं अनगिन खरपतवार, जंगली घासया फिर ढेरों कुकुरमुत्ते पर वे भूलती नहींऔर ढूँढ कर पहचान ही लेती हैं अपने सपनों कोमुलायम कुकुरमुत्तों की शक्ल में।4 * विरह मन-------भीड़हुजूम , लोगों काभीड़ से घिरे तुमऔरएकांत की टोह में मुंतज़िर मैं,अपनी दुखती पीठ एक उदास दरख़्त से टिकाए,बड़े बेमन से उबाऊ दिन की सलाइयों परबुनने लगी हूँ कुछ ख्वाब अतीत को उधेड़तीभविष्य बुनतीवर्तमान के कंधे पर सर रखकरती हूँ , इंतज़ार कि कब भीड़ छटेएकांत मिलेऔर मिलो तुम मुझसेअपनी उदात्त राग लियेपूरे आवेग के साथहों आलिंगनबद्ध हमलरजते होंठऔर गूँगे शब्दोंकी आड़ में ।फूट करबह निकलूँ मैंपके घाव की पीव सीताकिडूब सको तुम उसकी लिजलिजी मवाद मेंऔर महसूस कर सकोमर्म मेरे विरहमन का ।सोख सको अपनी गीली पलकों से गिन-गिन पीर मेरा , जैसे चुगता है पंछी दाना ,,,, एक-एक ।मेरी कराह परमेरी आह परतुम्हारे प्यार की फूँकनर्म सेमल की फाहों सीमख़मली मरहम मेंलिथड़ा पूरा जिस्मतुम फैलो मेरी देह परपसरते किसी तरल सेचूमते मेरे कानों की लौ कोबरसो तुमसावन की किसी पहली फुहार से ।निर्बाध बहो तुमशुष्क, पपड़ी पड़े,सर्द होंठों के कोरों तकसूखा पड़ा है जो अबतक गहरेशापित कुँए सा ।धँस जाओ मेरे मन केहरे दलदल मेंताकि ढहती दीवारों सेझरते स्वप्न, ठहर जायें ठिठक करऔरबच जायें पिघलने सेवे सारेनमकीन पहाड़जो उग आये हैं मेरीआँखों के आँगन में,प्रेम के उगते सूरज के साथ ।कभी खोलूँ मैं भीअपने घर की जंगाती खिड़कियाँ और सुनूँ बाहरीहवा की सुरीली तानक्योंकिअरसा बीत गयाकोई राग डूबी नहींसुर संध्या के रंग में ।पर ,ऐसा तो तब हो जब भीड़ हटे तम छटेएकांत मिलेतुम बनो हरे-भरे दरख़्त औरमैं लिपटूँ तुमसे लता सीअमर बेल बन ,,,,,!पर,ऐसा तो तब हो जबभीड़ छटे ,,,,,,एकांत मिले ,,,,!5 * वजूद———ये चुप्पी ,ये उदासी ,ये मौन, जाने कहाँ बहा ले जाती है कभी समंदर के अतल मेंकभी निर्बाध गगन में गुमनदी की अजस्त्र धारा पर जैसेबहती जाती हो अकेली नाव बग़ैर किसी नाविक बहती जाती है बेलौसहवा के रुख़ के साथ कभी हवा के विरूद्ध निपट अकेली , निस्संगबग़ैर किसी किनारे बिना किसी ठौर की चाह लिएकिन्तुनाव को तय करना ही होगा किबंधे किसी खूंटे सेयायूँही बेरोक टोक बहती रहे लहरों के साथछिटक कर यहाँ - वहाँ करती रहे अठखेलियांशायद जबाब में उसका वजूद अहम होक्योंकि नाव किनारे से ज़्यादा पाना चाहती है पानी के बहाव को ।— अमृता सिन्हा