बहुत दिनों से सोच रहा था, कि कुछ नहीं बोलूंगा क्योंकि हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है। फिर हमें चुप रहना आता ही कहाँ है ? अब साहब लेखक लोगों की बिरादरी में पुरस्कार वापस करने का फैशन चल निकला हैं । हम तो ठहरे छोटे-मोटे लेखक, हम क्या वापस करें कि लोग हमें भी जाने। ले-दे के एक सामाजिक साहित्यिक संगठन में हमें बडे जोड़-तोड़ के बाद एक पुरस्कार दिया था। उसमें भी आयोजन का सारा खर्च हमें ही करना पड़ा। यहाँ तक की मंच पर प्रदान किया जाने वाला स्मृति चिन्ह, शाॅल और श्रीफल भी हमनें ही