चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 37

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चार्ली चैप्लिन मेरी आत्मकथा अनुवाद सूरज प्रकाश 37 अब उत्तेजना अपने चरम पर थी। कोई भी चीज दिमाग को बांध नहीं पा रही थी, बस सिर्फ प्रत्याशा ही थी। किस चीज की प्रत्याशा? मेरे दिमाग में हाहाकार मचा हुआ था। मेरे सोचने-समझने की शक्ति साथ छोड़ चुकी थी। मैं वस्तुपरक तरीके से सिर्फ लंदन की छतें ही देख पाया, लेकिन वास्तविकता वहां पर नहीं थी। सिर्फ प्रत्याशा थी और कुछ भी नहीं था! आखिरकार हम पहुंच गये थे। रेलवे स्टेशन की घिरी हुई आवाज़ के दायरे में - वाटरलू स्टेशन! जैसे ही मैं ट्रेन से उतरा, मैंने प्लेटफार्म के दूसरे